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बारां का जिले का इतिहास नोट्स

बाराँ चौदहवीं व पन्द्रहवीं शताब्दी में सोलंकी राजपूतों के अधीन था तथा उस समय इसके अन्तर्गत 12 गाँव आते थे
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 सामान्य परिचय

• बारों को प्राचीनकाल में "वराह नगरी" के नाम से भी जाना जाता था। बाराँ चौदहवीं व पन्द्रहवीं शताब्दी में सोलंकी राजपूतों के अधीन था तथा उस समय इसके अन्तर्गत 12 गाँव आते थे, इसलिए यह नगर बारों कहलाया। सन् 1948 में संयुक्त राजस्थान के निर्माण के समय भी बारों एक जिला था 31 मार्च, 1949 को राजस्थान के पुनर्निर्माण के उपरांत बारों जिला मुख्यालय को कोटा जिले का उपखण्ड मुख्यालय बनाया गया। 10 अप्रैल, 1991 को पूर्व कोटा जिले से बारों जिले का निर्माण किया गया। इसे 'मसाला नगरी' के उपनाम से जाना भी जाता है।

भौगोलिक परिदृश्य

• भौगोलिक स्थिति :- 

बारों जिला राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित हाड़ौती के पठार का हिस्सा है। राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित इस जिले में अति आर्द्र जलवायु पाई जाती है।

 पड़ोसी राज्य :

 यह जिला मध्य प्रदेश के साथ अपनी सीमा साझा करताहै।

पड़ोसी जिले :

 उत्तर-पश्चिम में कोटा जिले और दक्षिण-पश्चिम में झालावाड़ जिले को छूता है।

• नदियाँ:-

 यहाँ पार्वती, कालीसिंध, कुन्नू तथा बाणगंगा नदियाँ प्रवाहित होती हैं। बारों शहर में पानी की सप्लाई पार्वती नदी में स्थित हीकड दह से होती है। यह बाणगंगा नदी के समीप स्थित है, पार्वती नदी परवन नदी की सहायक नदी है।

कुन्नू नदी :- 

यह नदी बारों जिले को दो भागों में विभाजित करती है।

 • जलाशय / झीलें :-

 यहाँ उम्मेद सागर, इकलेरा सागर, सीताबाड़ी का

कुण्ड, ढोल तालाब, अमलसरा तालाब और नियाणा तालाब स्थित हैं।


 • कृषि :- 

जिले में स्थानान्तरित कृषि की जाती है जिसे झूमिंग कृषि भी कहा जाता है। यह झूमिंग कृषि सर्वाधिक आदिवासी या जनजातीय लोग करते हैं। यहाँ के छीपाबड़ौद में लहसुन मण्डी स्थित है। यह जिला राज्य .में सर्वाधिक मसाला उत्पादन करने वाला जिला है। यहाँ की शाहबाद तहसील में पान की खेती होती है।

• फसलें:-

 यहाँ सोयाबीन, मक्का, ज्वार, गेहूँ, चना, मूँगफली, धनिया, सरसों, चावल तथा राई आदि फसलों का उत्पादन होता है।

 * फल :-

 यहाँ जामुन उत्पादन किया जाता है।

मिट्टी :- 

यहाँ मध्यम काली मिट्टी पाई जाती है। इसे कपासी या रेगुर मृदा भी कहते हैं। यह मिट्टी कपास के उत्पादन के लिए अच्छी मानी जाती है। इस मृदा का विस्तार क्षेत्र हाड़ौती का पठार है। इसका निर्माण ज्वालामुखी क्रिया के समय निकलने वाले लावा से हुआ है।


 वनस्पति :- 

धीकड़ा, खैर, सालर, सागवान, शीशम, गुरजन एवं तेंदू यहाँकी प्रमुख वनस्पतियाँ हैं। 

पशु सम्पदा :-

 यहाँ जमनापरी नस्ल की बकरी एवं मालवी नस्ल की गाय प्रमुख पशुसंपदा है। मालवी नस्ल की गौवंश का मूल स्थान मालवा, मध्य प्रदेश है। यह दुग्ध उत्पादन हेतु प्रसिद्ध नस्ल है।

वन्य जीव अभयारण्य

शेरगढ़ अभयारण्य :- 

बारों जिले में परवन नदी के किनारे पर स्थित यह अभयारण्य साँपों तथा चिरौंजी वृक्ष के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ बघेरा, जरख,रीछ, लोमड़ी, चीतल, साम्भर, चिंकारा, नेवला, खरगोश, जंगली सूअर व था।"थातियाण मॉनीटर लिर्जाङ प्रमुख वन्यजीव हैं।

 • सोरसन वन्यजीव अभयारण्य :- 

यह वन्यजीव अभयारण्य सोरसन घास के मैदानों के रूप में भी जाना जाता है। यह 41 वर्ग किमी. का पक्षी अभयारण्य है जो झाड़ीदार वनस्पतियों, कई जल निकायों, पक्षियों और जानवरों की एक विशाल विविधता का घर है। यहाँ ओरिओल्स, बटेर, तीतर, रॉबिन, बुनकर, ग्रेलेग गीज़, कॉमन पोचाईस, टील्स और पिनटेल्स पक्षी पाए जाते हैं। 

• आखेट निषिद्ध क्षेत्र:- 

सोरसन आखेट निषिद्ध क्षेत्र है। यहाँ भारत का पहला गोडावण ब्रीडिंग सेंटर स्थित है इसे राज्य पक्षी गोडावण संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है। वर्तमान में यहाँ से गोडावण लुप्त हो चुके हैं। 

•जल परियोजनाएँ/बाँध :- 

इस जिले में परवन लिफ्ट योजना, विलास योजना, अहमदी-परियोजना, रताई बाँध, छतरपुरा बाँध, इकलेरा सागर बाँध व उम्मेद सागर बाँध तथा ल्हासी नदी पर ल्हासी परियोजना, बैथली नदी पर बैथली परियोजना एवं विलास नदी पर विलास परियोजना संचालित हैं।


• खनिज :-

 इस जिले में इमारती पत्थर, सिलिका सैण्ड, सुलेमानी (पत्थर / अकीक / गोमेद), लैटेराइट तथा एल्युमिनियम (बॉक्साइट) का उत्खनन होता है।

• ऊर्जा यहाँ छबड़ा सुपर क्रिटिकल थर्मल पॉवर प्लांट, अडानी समूह द्वारा संचालित कवई सुपर थर्मल पॉवर तथा NTPC द्वारा संचालित राज्य में स्थापित प्रथम गैस प्लांट (अन्ता गैस थर्मल पॉवर प्लांट) स्थित हैं। 

• मंसूरिया व कोटा डोरिया, मांगरोल -

 झाला जालिम सिंह इस कला के उद्योग भी कलाकार मंसूर अहमद को हैदराबाद से लाए थे। मंसूर अहमद के नामगद पर इसे मंसूरिया कला भी कहा जाता है। इस उत्पाद को जी.आई. टैग प्राप्त है।

 • हस्तशिल्प :-

 यहाँ के हस्तशिल्प में दरी बुनना, हथकरघे की साड़ी बुनना, वस्त्रों की रंगाई एवं टेरी खादी शामिल हैं। स्थापत्य एवं सांस्कृतिक परिदृश्य

• शेरगढ़ किला :

 यह गिरि एवं जल श्रेणी का दुर्ग परवन नदी के किनारे

कोषवर्द्धन पर्वत शिखर पर स्थित है। शेरगढ़ का नी नाम शेरशाह द्वारा कब्जा करने के बाद दिया गया। इसका मूल नाम कोषवर्धन था यहाँ प्राप्त 790 ईस्वी का शिलालेख शेरगढ़ किले के भव्य इतिहास को दर्शाता है। 

• शाहबाद किला :-

 शाहबाद का किला अपनी मजबूती के लिए जाना जाता है। इसे 16वीं शताब्दी में चौहान राजपूत मुक्तमनी देव द्वारा निर्मित करवाया गया था। घने जंगली इलाके में स्थित यह किला, कुंड कोह घाटी से घिरा हुआ है। इतिहास के अनुसार इस किले की रक्षा के लिए 18 शक्तिशाली तोपें स्थापित की गई थीं, नवलबाण यहाँ की प्रमुख तोप है।

 • नाहरगढ़ किला:- 

बारों में स्थित लाल पत्थर से मुगल वास्तुकला के आधार पर निर्मित यह किला एक शानदार संरचना है।

गुगोर किला :- 

यह छबड़ा के पास स्थित है। पेनोरमा यहाँ हाडौती पेनोरमा स्थित हैं।

• सीता बाड़ी मेला :-

 प्रतिवर्ष ज्येष्ठ अमावस्या पर यहाँ एक बड़े आदिवासी मेले का आयोजन किया जाता है। यह हाड़ौती अंचल का सबसे बड़ा मेला है। इसे 'सहरिया जनजाति का कुंभ' भी कहा जाता है।

 • कपिलधारा मेला :-

 यह मेला प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को आयोजित

किया जाता है।

 • डोल मेला बारों अपने विशेष कार्निवल या डोल मेले के लिए प्रसिद्ध : -है, जो डोल ग्यारस के बाद 15 से 20 दिनों तक मनाया जाता है।

 • पिपलोद क्रिसमस मेला:- 

अटरू तहसील के पिपलोद में बारों जिले के इकलौते चर्च में इस मेले का आयोजन किया जाता है। यह मेला प्रतिवर्ष 25 दिसंबर को आयोजित किया जाता है। हालांकि यह मेला चर्च के पास आयोजित किया जाता है लेकिन स्थानीय हिंदू मुस्लिम भी मेले में भाग लेते हैं।

• ब्राह्मणी माताजी मेला:- 

सोरसन एकमात्र स्थान जहाँ ब्राह्मणी माता की प्रतिमा की पीठ की पूजा होती है। सोरसन के पास पुराने किले में इस मेले का आयोजन किया जाता है। इस किले में ब्राह्मणी माताजी का मंदिर है। यह मेला माघ शुक्ल सप्तमी को आयोजित किया जाता है। इस मेले में कई जानवर खरीद-बिक्री के लिए लाए जाते हैं लेकिन ज्यादातर गधे और खच्छर मेले में बेथे और खरीदे जाते हैं।

• काकूनी मन्दिर समूह :-

 यह 8वीं सदी के वैष्णव देवताओं और भगवान शिव के मन्दिरों का समूह है। काकूनी, परवन नदी के तट पर स्थित है तथा यहाँ राजा भीम देव द्वारा निर्मित 'भीमगढ़ किले के अवशेष भी स्थित हैं। काकूनी मंदिरों से कई मूर्तियाँ कोटा और झालावाड़ के संग्रहालयों में लाकर सुरक्षित रखी गई है।

 • शाहबाद की शाही जामा मस्जिद :- 

यह मस्ज़िद अपने वास्तुशिल्प के लिए प्रसिद्ध है। इसका प्रारूप दिल्ली की जामा मस्ज़िद को देखकर बनाया गया तथा यह अपने सुन्दर मेहराबों व स्तम्भों के कारण जानी जाती है। रामगढ़ भंडदेवरा मंदिर भगवान शिव को समर्पित यह मन्दिर 10वीं शताब्दी का प्राचीन मन्दिर माना जाता है। इसकी वास्तुकला की शैली खजुराहो शैली से मिलती जुलती है, इसीलिए इसे राजस्थान का 'मिनी खजुराहो' भी कहा जाता है। एक छोटे तालाब के किनारे बना यह मन्दिर अन्य मन्दिरों से अनूठा है। यहाँ प्रसाद के तौर पर, एकदेवता को मिठाई व सूखे फल चढ़ाए जाते है तो दूसरे आराध्य की सेवा में मास-मदिरा प्रस्तुत किया जाता है।

• सीताबाड़ी :- 

केलवाड़ा स्थित यह मन्दिर सीता माता और लक्ष्मण को समर्पित है तथा ऐसी मान्यता है कि भगवान राम और सीता के दोनों पुत्र लव और कुश का जन्म यहीं पर हुआ था। इसमें वाल्मीकि कुण्ड, सीता कुण्ड, लक्ष्मण कुण्ड, सूर्य कुण्ड आदि स्थित हैं। यहाँ प्रसिद्ध 'सीताबाड़ी मेला' भी आयोजित किया जाता है।

• तपस्वियों की बगीची :- 

यहाँ शिवजी की विशालकाय प्रतिमा स्थित है। 

• सूरज कुण्ड बारों में स्थित सूरज कुण्ड, चारों ओर से बरामदों से सुरक्षित है। यहाँ स्थानीय लोग, अपने दिवंगत रिश्तेदारों की राख प्रवाहित करने तथा देवताओं के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने के लिए आते हैं। कुण्ड के एक कोने में शिवलिंग की स्थापना की गई है।

कन्या दह-विलासगढ़ :- 

यहाँ के शासक राजा खींची की राजकुमारी के रूप को देखकर, मुगल शासक औरंगज़ेब आसक्त हो गया था तथा उसने अपने सिपाहियों से राजकुमारी को उठा लाने का आदेश दिया था। राजकुमारी ने उसकी रानी बनने के बजाय, मृत्यु का आलिंगन करना ज़्यादा उचित समझा। राजकुमारी ने यहाँ अपना जीवन समाप्त कर लिया। अपनी हार को देखते हुए औरंगजेब ने पूरे विलासगढ़ को नष्ट कर दिया। इससे पहले यह स्थान एक अच्छे और पूर्णतया विकसित नगर के रूप में प्रसिद्ध था परन्तु अब यह घने जंगलों के बीच एक निर्जन स्थल है।

 • नेकनाम बाबा की दरगाह :- 

यह दरगाह बारों में स्थित है।

गडगच्च देवालय :-

 यह मंदिर अटरू में स्थित है। इसे मामा-भांजा मंदिर भी कहते हैं।

● औस्तीजी की बावड़ी :- 

शाहबाद कस्बे (बारों) के पास औस्तीजी की बावड़ी तथा तपसी की बावड़ी स्थित हैं।

• मांगरोल :-

 इस क्षेत्र की रामलीला मुख्यतः ढाई कड़ी के दोहों के लिए प्रसिद्ध है। 

दुगेरी व रेलावन :- यह हड़प्पाकालीन पुरातत्व स्थल है।


विविध तथ्य

• सहरिया जनजाति :- 

यह जनजाति सर्वाधिक शाहबाद और किशनगंज में निवास करती है। भारत सरकार द्वारा इसे आदिम जनजाति समूह में शामिल किया गया है। इस जनजाति के गाँव को सहरोल, मुखिया को कोतवाल, बस्ती को सहराना व घर को टापरा कहते हैं। इस जनजाति के प्रमुख नृत्य शिकारी, झेला व लहंगा नृत्य हैं। इनके आराध्य देवता तेजाजी एवं आदिगुरु वाल्मीकि हैं। भारत सरकार द्वारा सहरिया विकास कार्यक्रम वर्ष 1977-78 से चलाया जा रहा है।

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