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नागौर (NAGAUR) की जानकारी

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नागौर जिला संभाग की पूरी जानकारी



नागौर जिले का वर्तमान नाम रियासतकालीन नागौर करने से ही लिया गया है। इसके पुराने नामों में नागपुर, अहिच्छापुर तथा अनन्तगोचर मुख्य है। राजस्थान स्टेट आर्काइव, बीकानेर के वर्ष 1966 के एक प्रकाशन के अनुसार नागौर को पहले नागापुरा के नाम से जाना जाता था। इतिहासकार टॉड ने भी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के वर्ष 1920 के एक प्रकाशन में इसे नागादुर्ग के नाम से उल्लिखित किया है। 'दी इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया 1908 के अनुसार नागौर का नाम इसके संस्थापक नागा राजपूतों के नाम से लिया गया है। महाभारत काल में यह क्षेत्र 'जांगल प्रदेश' कहलाता था। इसे 'धातु नगरी' एवं 'औजारों की नगरी' नामक उपनामों से भी जाना जाता है। चौहान काल में नागौर को 'सपादलक्ष' कहा जाता था। प्रारंभ में नागौर मारवाड़ रियासत का अंग रहा था।

ऐतिहासिक परिचय

• राव चूडा 1406 ईस्वी में राठौड़ वंश के राव चूडा ने मण्डोर में अपनी सत्ता स्थापित की तथा सांभर, डीडवाना तथा नागौर को अपने राज्य में मिला लिया।

चूडा की मृत्यु के बाद नागौर पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। • राव दूदा राव जोधा के पुत्र राव दूदा ने मेड़ता में अपनी सत्ता स्थापित

की जिसके वंशज मेड़तिया राठौड़ कहलाए। • अमरसिंह राठौड़ :- 1638 ईस्वी में नागौर जोधपुर के राजा गजसिंह के

बड़े पुत्र अमरसिंह राठौड़ को प्रदान किया गया। 1947 में देश को आजादी मिलने तक नागौर जोधपुर रियासत का हिस्सा था। आजादी मिलने के बाद जब राजस्थान का गठन हुआ तब जोधपुर रियासत के नागौर, डीडवाना, मेड़ता, परबतसर नामक परगने एवं सांभर परगने का नावां क्षेत्र मिलाकर नागौर जिले का गठन किया गया।

भौगोलिक परिदृश्य:

• भौगोलिक स्थिति :- लगभग वर्गाकार आकृति वाले इस जिले का अधिकांशत: उत्तर-पूर्वी भाग समतल है तथा इसी भाग पर कुछ पहाड़ियाँ भी स्थित है। उत्तर-पश्चिमी एवं उत्तरी भाग में रेत के टीले स्थित है। यह जिला धार के मरुस्थल का भाग है तथा इसका तीन-चौथाई भाग अर्द्धमरुस्थलीय है।

• पड़ोसी जिले : यह जिला जोधपुर, बीकानेर, चूरू, सीकर, जयपुर, अजमेर एवं पाली जिलों के साथ सीमा साझा करता है।

जलवायु इस जिले में शुष्क जलवायु पाई जाती है। • मिट्टी- यहाँ भूरी एवं रेतीली मिट्टी पाई जाती है।

वनस्पति :- यहाँ की प्रमुख वनस्पतियों में खेजड़ी, रोहिड़ा एवं बबूल शामिल हैं।

• कृषि राज्य में सर्वाधिक तिल का उत्पादन नागौर जिले में होता है। हरी मैथी का उत्पादन सबसे अधिक नागौर में होता है जिसे देश विदेश में निर्यात किया जाता है।

• खनिज जिले का मकराना क्षेत्र संगमरमर एवं गोठ मांगलोद जिप्सम उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। टंगस्टन का उत्पादन नागौर के डेगाना से होता है। आगरा का ताजमहल, दिलवाड़ा के जैन मंदिर, कोलकाता का विक्टोरिया मेमोरियल मकराना के सफेद संगमरमर से निर्मित है। मकरानानगर में सैनी हथौड़ी की मदद से संगमरमर पर विविध आकृतिया का काम पुराने समय से होता आ रहा है। • उद्योग : मकराना का संगमरमर उद्योग, डीडवाना का सोडियम

सल्फाइड संयंत्र एवं गोटन का सफेद सीमेंट उद्योग प्रसिद्ध है। नागौर  औजार हेतु प्रसिद्ध है।

झीलें

• डीडवाना झील - नागौर में स्थित यह खारे पानी की झील है तथा इस झील का नमक खाने योग्य नहीं है क्योंकि इस नमक में सोडियम सल्फेट

की मात्रा अधिक होती है। • डेगाना झील - यह नागौर में स्थित खारे पानी की झील है। कुचामन झील - यह नागौर में स्थित खारे पानी की झील है।

• जोजरी नदी इस नदी का उद्गम पुन्दलू (नागौर) से होता है। यह लूनी की एकमात्र सहायक नदी है जो दायीं ओर से मिलती है। राजस्थान में

सर्वाधिक खारे पानी की झीले नागौर जिले में स्थित हैं।

दर्शनीय स्थल

• नागौर दुर्ग धान्वन श्रेणी के इस स्थल दुर्ग का निर्माण चौहान शासक सोमेश्वर के सामन्त कैमास द्वारा वि. सं. 1211 में करवाया गया था। इसे अहिच्छत्रगढ़, फोर्ट ऑफ हुडेड कोबरा, नागराज का फण एवं नागदुर्ग के नाम से भी जाना जाता है। 1570 ई. में बादशाह अकबर ने अजमेर में ख्वाजा साहब की जियारत करने के बाद नागौर दुर्ग में ठहरे थे। अकबर ने यहाँ शुक्र तालाब का निर्माण करवाया। नागौर का दुर्ग वीर शिरोमणि अमरसिंह राठौड़ के शौर्य एवं स्वाभिमान के लिए प्रसिद्ध है। अकबर ने इस दुर्ग को बीकानेर शासक रायसिंह को सौंपा। सन् 1980 तक यह किला उपेक्षा का शिकार था। सन् 1985 में इस क़िले को मेहरानगढ़ म्यूजियम ट्रस्ट के संरक्षण में दे दिया गया। नागौर के क़िले को इसकी 'संस्कृति विरासत संरक्षण' के लिए 'यूनेस्को एशिया पैसिफिक हैरिटेज अवॉर्ड' से सम्मानित किया गया था। सन् 2011 2013 में इस किले को श्रेष्ठ वास्तु शिल्प कला के लिए प्रतिष्ठित 'आता खान अवॉर्ड' के लिए भी चयनित किया गया था। प्रति वर्ष नागौर फोर्ट में 'वर्ल्ड सेक्रेड स्पिरिट फ़ेस्टिवल' आयोजित किया

जाता है। • स्थापत्य :- यहाँ ज्ञानी तालाब, वंशीवाला का मंदिर, वरमाया का मंदिर अन्न गोदाम, दोहरा परकोटा एवं वीर अमरसिंह राठौड़ की छतरी स्थित हैं।
हैं।

• कुचामन का किला :- 'जागीरी किलों का सिरमौर कुचामन दुर्ग का निर्माण ठाकुर जालिम सिंह द्वारा करवाया गया था।  कुचामन फोर्ट,एक सीधी पहाड़ी की चोटी चोटी पर स्थित राजस्थान का पुराना एवं सबसे दुर्गम किला है। इसमें अद्वितीय जल संचयन प्रणाली एक खूबसूरत महल एवं अद्भुत भित्ति चित्र स्थित हैं। इसमें बनी हवेलियों अपने अद्भुत वास्तुशिल्प में शेखावाटी हवेलियों से काफी मिलती जुलती हैं। जोधपुर के शासक की सोने और चाँदी के सिक्कों की टकसालें भी यहाँ थीं।

• खींवसर क़िला यह प्राचीन किला थार रेगिस्तान के पूर्वी किनारे पर स्थित है। यहाँ मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब रहे थे। काले मृग इस किले के आस पास समूह में विचरण करते हैं। किले को आधुनिक सुविधाओं के साथ सुसज्जित किया गया है और वर्तमान में इसे हैरिटेज होटल में बदल दिया गया है।

• मालकोट दुर्ग : मेड़ता सिटी में स्थित इस दुर्ग का निर्माण 1556 ई. में राव मालदेव ने करवाया। इसके भीतर एक प्राचीन बावड़ी स्थित है। अबुल फजल एवं फैजी ने इस दुर्ग में राव मालदेव से मुलाकात की। • शाहजहानी मस्जिद- इसका निर्माण औरंगजेब द्वारा करवाया गया था।

• मेड़ता सिटी इसका प्राचीन नाम मेहतापुर, मेड़न्तकपुर एवं मेदिनीपुर

हैं। यहाँ राव दूदा ने दूदागढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। प्रतिहार शासक ने।

नागभट्ट -1 ने अपनी राजधानी मंडोर से मेड़ता स्थापित की। पश्चिमी भारत व उत्तरी भारत को राजमार्ग से जोड़ने का प्रमुख केन्द्र मेड़ता था। • लाडनूं जैन धर्म का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र और अहिंसा एवं करूणा का आध्यात्मिक केन्द्र माना जाने वाला लाडनूं, 10वीं सदी में बसाया गया था। यहाँ जैन धर्म, आध्यात्मिकता

और शुद्धि का प्रतीक जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय भी स्थित है। कहा जाता है कि विश्व विख्यात संत आचार्य श्री तुलसी लाडनूं के थे। • दधिमति माता का मन्दिर :- यह दाधीच ब्राह्मणों की कुलदेवी है। गोठ

मांगलोद (नागौर) में इनका मंदिर स्थित है। यह मन्दिर नौवीं शताब्दी का है तथा यहाँ आश्विन शुक्ल अष्टमी से चैत्र शुक्ल अष्टमी तक मेला लगता है। यह मन्दिर प्रतिहार कालीन महामारु शैली में निर्मित है।

* भैवाल माता: मेड़ता सिटी के भैवाल में स्थित यह मंदिर ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित है। इस मंदिर में ढाई प्याले शराब चढ़ाई जाती है। माता / सकराय माता : डीडवाना झील के किनारे पाड़ाय माता का मंदिर स्थित है। पाड़ाय माता को सरकी माता भी कहा जाता है। मंदिर मूल रूप से शिवालय था लेकिन बाद में देवी मंदिर में परिवर्तित हो गया। यहाँ श्याम जी तथा वाराही माता का मंदिर भी स्थित है। * चारभुजा नाथ मंदिर / मीराबाई मंदिर :- यह मन्दिर मेड़ता शहर में स्थित

है।

• सुप्रसिद्ध पवित्र स्थान होने के कारण, नागौर में बड़े पीर साहब की दरगाह को 17 अप्रैल 2008 को एक संग्रहालय के रूप में भी दर्शनार्थ खोला गया था। दरगाह में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध और लोकप्रिय दर्शन योग्य सुशोभित वस्तु यहाँ पर रखी गई 'कुरान शरीफ' है, जिसे हजरत सैयद सैफुद्दीन अब्दुल जीलानी द्वारा सुनहरी स्याही में लिखा गया था।

पशुपति नाथ मंदिर :- राजस्थान में नागौर जिले के मंझवास गाँव में स्थित इस मंदिर का निर्माण योगी गणेशनाथ ने वर्ष 1982 में किया था। हिंदू देवता, भगवान शिव को समर्पित, यह मंदिर नेपाल के पशुपति नाथ मंदिर की तर्ज पर बनाया गया है। इस मंदिर के आंतरिक गर्भगृह के भीतर स्थित शिवलिंग अष्टधातु से निर्मित है तथा देवता की पूजा करने के लिए प्रतिदिन चार आरती की जाती है।

वीर तेजाजी गौ रक्षक देवता वीर तेजाजी का जन्म खड़नाल (नागौर) ग्राम के ताहड़जी और रामकुँवरी के यहाँ माघ शुक्ल चतुर्दशी को 1073 ई. में हुआ था। सर्प दंश के कारण सुरसुरा (किशनगढ़) में भाद्रपद शुक्ल दशमी को इनकी मृत्यु हो गई तथा उनकी पत्नी पेमल भी उनके साथ सती हुई। तेजा दशमी (भाद्रपद शुक्ल दशमी) के अवसर पर पंचमी से पूर्णिमा तक परबतसर (नागौर) में विशाल पशु मेला लगता है। तेजाजी भी गोगाजी की ही तरह नागों के देवता के रूप में पूजनीय है तेजाजी को तलवार धारण किये घोड़े पर सवार योद्धा के रूप में दर्शाया जाता है, जिनकी जिह्वा को सर्प डस रहा है। मान्यता है कि यदि सर्प दंशित व्यक्ति के दायें पैर में तेजाजी की तांती (डोरी) बांध दी जाये तो उसे विष नहीं चढ़ता है। तेजाजी की घोड़ी को 'लीलण' तथा इनके पुजारी को 'घोड़ला' कहते हैं। इन्हें काला और बाला के देवता, कृषि कार्यों के उपकारक देवता एवं गौरक्षक देवता भी कहा जाता है। तेजाजी ने लाछा गुजरी की गायों को मेर (वर्तमान आमेर) के मीणाओं से छुड़ाई थी। भारतीय डाक विभाग द्वारा वर्ष 2011 में तेजाजी पर डाक टिकट जारी किया गया।

जाम्भोजी विश्रोई सम्प्रदाय के प्रवर्तक जांभोजी का जन्म 1451 ई. की भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को पीपासर (नागौर) के पंवार वंशीय राजपूत लोहटजी तथा हांसा देवी के घर में हुआ। 1483 ई. में माता-पिता के देहांत के पश्चात् वे गृह त्यागकर समराथल (बीकानेर) में रहते हुए सत्संग तथा हरि-चर्चा में अपना समय व्यतीत करने लगे। 1485 ई. में इसी स्थान पर इन्होंने 'विश्नोई सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। इनके जीवन तथा विचारों पर आचरण करने वाले विश्नोई कहलाये। इन्होंने अपने अनुयायियों को उनतीस सिद्धांतों का पालन करने का आदेश दिया। जीव कल्याण तथा वृक्षों की रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग करना इस सम्प्रदाय का इतिहास रहा है। पर्यावरण के प्रति लगाव के कारण जांभोजी को पर्यावरण वैज्ञानिक भी कहा जाता है। जांभोजी द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ जम्भ सहिता, जम्भसागर शब्दावली तथा विश्नोई धर्मप्रकाश है। 1536 ई. में तालासर गाँव में इन्होंने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया तथा तालवा गाँव के निकट इन्हें समाधिस्थ किया गया। यह स्थान 'मुकाम' कहलाता है। वर्ष में दो बार फाल्गुन और आश्विन की अमावस्या को यहाँ मेले लगते हैं। 

संत हरिदास - निरंजनी संप्रदाय के संस्थापक संत हरिदास का जन्म डीडवाना तहसील के कापड़ोद गाँव में 1455 ई. में हुआ। इनका मूल नाम हरिसिंह सांखला था और प्रारम्भ में लूटमार करना इनका पेशा था, लेकिन एक संन्यासी के उपदेशों से इनका जीवन बदल गया। 1513 ई. में इन्होंने 'बोध' (ज्ञान) प्राप्त किया और अपना नाम हरिदास रख लिया। इन्होंने निर्गुण भक्ति पर जोर दिया तथा कुरीतियों का विरोध किया । इन्होंने निरंजनी संप्रदाय प्रारम्भ किया, इस संप्रदाय में परमात्मा को 'अलख निरंजन' या 'हरि निरंजन' कहा जाता है। संत हरिदास के आध्यात्मिक विचार 'मंत्र राजप्रकास' और 'हरिपुरुष की वाणी' नामक ग्रंथों में संकलित हैं। डीडवाना में 1543 ई. में इनका देहान्त हुआ।

प्रमुख मेले:-

नागौर मेला: 'वर्ल्ड सूफी स्पिरिट फेस्टिवल' राजस्थान पर्यटन विभाग द्वारा प्रतिवर्ष नागौर मेला आयोजित किया जाता है। इसके अलावा ''नोमैड' ट्रेवल्स द्वारा 'सूफी म्यूज़िक' का एक कार्यक्रम भी आयोजित किया जाता है। त्योहार में कार्यशालाएँ, व्याख्यान, संगीत और योग सत्र भी शामिल हैं। 

लक्ष्मीनारायण झूला का मेला :- यह मेला मौलासर (नागौर) में श्रावण मास में भरता है।

हरिराम जी का मेला :- यह मेला झोरड़ा स्थान पर नागौर में भाद्रपद शुक्ल पंचमी को भरता है।

चारभुजा नाथ (मीराबाई) का मेला :- यह मेला नागौर के मेड़ता सिटी में श्रावण शुक्ल एकादशी से 7 दिन तक भरता है।

तारकीन का उर्स - यह नागौर जिले में संत काजी हमीदुद्दीन नागौरी की दरगाह में लगता है।

दधिमती माता का मेला :- यह मेला गोठ मांगलोद नागौर में आश्विन

शुक्ल अष्टमी व चैत्र शुक्ल अष्टमी को लगता है। 

भैवल माता का मेला:- यह मेला नागौर की मेड़ता तहसील के भँवल गाँव में नवरात्र की अष्टमी को लगता है।

श्री बलदेव पशु मेला इसका आयोजन मेड़ता सिटी में किया जाता है। 

वीर तेजाजी पशु मेला : इसका आयोजन परबतसर में किया जाता है। • रामदेव पशु मेला : इसका आयोजन मानासर में किया जाता है।

मीरा बाई कृष्ण भक्त कवयित्री व गायिका मीरा बाई सोलहवीं सदी के भारत के महान संतों में से एक थी मीरा को 'राजस्थान की राधा' भी 1 कहा जाता है। इनका जन्म मेड़ता के राठौड़ राव दूदा के पुत्र रतनसिंह के घर में कुड़की (पाली) नामक ग्राम में 1498 ई. के लगभग हुआ था। इनके पिता रतनसिंह राठौड़ बाजोली के जागीरदार थे। मीरा का लालन-पालन अपने दादाजी के यहाँ मेड़ता में हुआ। इनका विवाह 1516 ई. में राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र युवराज भोजराज के साथ हुआ था, पर विवाह के कुछ वर्ष पश्चात् ही पति की मृत्यु हो जाने से यह तरुण अवस्था में ही विधवा हो गई। मीरा अपने अंतिम समय में गुजरात में द्वारिका के डाकोर रणछोड मंदिर में चली गई और वहीं 1547 ई. में अपने गिरधर गोपाल विलीन हो गई। मीरा जी की पदावलियाँ प्रसिद्ध है।

संत राना बाई : 'राजस्थान की दूसरी मीरा' संत राना बाई का मारवाड़ के हरनावा (मकराना के पास) गाँव में वैशाख शुक्लको 1504 ई. में एक जाट परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम रामगोपा तथा माता का नाम गंगाबाई था। पालड़ी के संत चतुरदास की राना बाई कृष्ण भक्त थी। 66 वर्ष की उम्र में हरनावा गाँव में शुक्ल त्रयोदशी को 1570 ई. में राना बाई ने जीवित समाधि ली। यह प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी को एक विशाल मेला आयोजित किय जाता है।

आचार्य तुलसी- 'अणुव्रत आन्दोलन' के सूत्रधार आचार्य तुलसी का जन्म 20 अक्टूबर, 1914 को नागौर जिले के लाडनूं कस्बे में हुआ। बाईस वर्ष की आयु में वे तेरापंथ संघ के नवें आचार्य बनाए गए। नैतिकता के उत्थान के लिए उन्होंने 1949 ई. में अणुव्रत आन्दोलन का सूत्रपात किया और इससे जनमानस को जोड़ने हेतु एक लाख किलोमीटर की पदयात्राएँ की। आचार्य तुलसी का संदेश है "इन्सान पहले इन्सान, फिर हिन्दू या मुसलमान" । 

सन्त दरियावजी :- रामस्नेही संप्रदाय की रैण शाखा (मेड़ता सिटी) के संस्थापक सन्त दरियावजी का जन्म पाली के जैतारण में 1676 ई. में हुआ। इनके गुरु संत प्रेमदास जी थे।

सन्त हमीदुद्दीन नागौरी - चिश्ती संप्रदाय के संत हमीदुद्दीन नागौरी का कार्यक्षेत्र नागौर का सुवाल गाँव था। नागौरी ने इल्तुतमिश द्वारा प्रदत्त 'शेख उल-इस्लाम' के पद को अस्वीकार कर दिया। ये केवल कृषि से जीविका चलाते थे। इन्हें ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती द्वारा 'सुल्तान-उल तारीकिन' (संन्यासियों के सुल्तान) की उपाधि दी गई। इनकी मृत्यु 1274 ई. में हुई तथा प्रतिवर्ष नागौर में इनका उसे लगता है।

सम्राट विग्रह राज चतुर्थ:- चौहान सम्राट विग्रह राज चतुर्थ प्रबल प्रतापी सम्राट था विग्रह राज का राज्य नागौर से लेकर डीडवाना, सांभर तथा अजमेर से भी आगे तक फैला हुआ था। वे अपने काल के महान कवि भी थे जो बांधव के नाम से प्रसिद्ध थे। उनके दरबारी कवि सोमदेव ने 'ललित विग्रहराज' नाटक लिखा । विग्रहराज ने 'हरिकेली' नामक नाटक की रचना की जो उसे भवभूति और कालीदास की कोटि के साहित्यकारों में स्थान दिलवाती है।

• वीरवर अमर सिंह राठौड़ वीरवर राव अमर सिंह राठौड़ वीरता और शौर्य के लिये पूरे उत्तरी भारत में प्रसिद्ध है। वे जोधपुर के शासक गजसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे। मुगल बादशाह ने उन्हें नागौर का स्वतंत्र शासक बनाया था सलावत खाँ को बादशाह के सामने ही मार देने पर हुए झगड़े में अमर सिंह 1644 ई. में वीरगति को प्राप्त हुए। लोक कलाकारों द्वारा वीरवर अमर सिंह राठौड़ की शौर्य एवं वीरता की गाथा को लोक कथाओं, कठपुतली, प्रदर्शनों एवं लोक ख्यालों के माध्यम से मंचित किया जाता है।

अबुल फैज और अबुल फजल :- ये दोनों भाई नागौर के शेख मुबारक के पुत्र थे। अबुल फैज का जन्म 16 सितम्बर, 1547 को हुआ था। इन्हें 'कैली' भी कहते है। इन्होंने हिन्दुओं के अध्यात्म, विज्ञान तथा साहित्य का अध्ययन करके संस्कृत व फारसी में कई पुस्तकें लिखीं। छोटे भाई अबुल फजल का जन्म 1551 ई. में हुआ था। ये दोनों भाई बादशाह के नो रत्नों में से एक थे। 19 वर्ष की आयु में अकबर की सेना में भर्ती हुए। उन्होंने 'अकबरनामा' तथा 'आईन-ए-अकबरी' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की।

कवि वृन्द : इनका असली नाम वृन्दावन दास था। इनका जन्म मेड़ता नगर में 1643 ई. में हुआ। उन्होंने डिंगल तथा पिंगल में छोटे-बड़े दस ग्रन्थों की रचना की जिनमें वृन्द सतसई, यमक, भाव पंचाशिका, श्रृंगार शिक्षा, वचनिका तथा सत्य स्वरूप आदि प्रसिद्ध है। इनकी अंतिम रचना सत्य स्वरूप थी, जिसकी रचना 1710 ई. में हुई थी।

हर्ष कीर्ति इनका जन्म सोलहवीं शताब्दी के अन्त व सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ का माना जाता है। ये नागौरी तपोगच्छ शाखा के आचार्य चन्द्रकीर्ति के प्रमुख शिष्य थे। इन्होंने अपनी रचनाएँ संस्कृत और राजस्थानी भाषा में लिखी।

सेवग रीखराम व चतुर बिहारी :- ये दोनों आशुकवि नागौर की विशेष देन है। ये दोनों ही कृष्ण भक्त थे। नागौर शहर के प्रसिद्ध बंशीवाला मंदिर में होली के बाद आयोजित होने वाले डांडिया रास में इन दोनों कवियों द्वारा रचित पदों के गायन की जो परम्परा नृत्य के साथ उस काल में प्रारम्भ हुई, आज भी निरन्तर चल रही है।

कुचामनी ख्याल :- कुचामनी ख्याल का प्रवर्तन प्रसिद्ध लोक नाट्यकार

लच्छीराम ने किया। ख्याल परम्परा में उन्होंने अपनी शैली का समावेश किया। लच्छीराम द्वारा रचित ख्यालों में से चाँद नीलगिरी, राव रिडमल तथा मीरा मंगल प्रमुख है। उगमराज भी कुचामनी खपाल के प्रमुख खिलाड़ी है। इस शैली की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

(i) इसका रूप ऑपेरा जैसा है। 

(ii) इसमें लोकगीतों की प्रधानता है।

(iii) इसका प्रदर्शन खुले मंच पर किया जाता है।

(iv) इनमें स्त्री चरित्रों का अभिनय पुरुष पात्रों द्वारा किया जाता है। 

(v) इस ख्याल में संगत के लिए ढोल वादक, शहनाई वादक, ढोलक व सारंगी

वादक मुख्य सहयोगी होते हैं।

(vi) इन ख्यालों की भाषा सरल होती है तथा सामाजिक व्यंग्य पर आधारित विषय चुने जाते हैं।



विविध तथ्य

● पंचायती राज प्रणाली :- 2 अक्टूबर 1959 को जवाहर लाल नेहरू ने

नागौर के बागदरी गाँव से पंचायती राज प्रणाली की शुरुआत की।

• परिवहन भारत की पहली रेल बस सेवा मेहता से मेड़ता रोड़ के बीच 12 अक्टूबर, 1994 में चलाई गई।

डेगाना : टंगस्टन हेतु प्रसिद्ध है।

टांकला गाँव:- यहाँ की दरियाँ प्रसिद्ध है।

• ताऊसर यहाँ की पान मैथी प्रसिद्ध है। • वरुण गाँव:- यहाँ की बकरियाँ प्रसिद्ध हैं।

गोटन: सफेद सीमेंट हेतु प्रसिद्ध है। 

• सुहालक क्षेत्र यहाँ के नागौरी बैल प्रसिद्ध है। राजस्थान में सर्वाधिक पशु मेलों का आयोजन नागौर जिले में होता है।
सुहालक   क्षेत्र  : यह के नागौरी बैल प्रसिद्ध हैं राजस्थान में सर्वाधिक पशु मेले का आयोजन नागौर जिले में होता है ।


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